Friday, January 21, 2011

गणतंत्र दिवस ( भारत ) का इतिहास 


गणतन्त्र दिवस भारत का एक राष्ट्रीय पर्व जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन १९५० कोभारत का संविधान लागू किया गया था।


इतिहास

सन 1929 के दिसंबर में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन
 पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ जिसमें प्रस्ताव पारित
 कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार 26 जनवरी,
 1930 तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन स्टेटस) नहीं प्रदान 
करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा। 26 जनवरी, 1930 
तक जब अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत
 की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन
 आरंभ किया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी 
स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। तदनंतर स्वतंत्रता प्राप्ति
 के वास्तविक दिन 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार
 किया गया। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए विधान निर्मात्री
 सभा (कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के 
गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई।

आखिर क्यों मनाएं हम गणतंत्र दिवस?                     - जयति गोयल (एक  विचार  )


पूरे देश में गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारी शुरू हो गई है। गणतंत्र दिवस को राष्ट्रीय उत्सव भी कहा जाता है। स्कूलों और सरकारी संस्थानों में यह उत्सव मनाना अतिआवश्यक है। सवाल यह उठता है कि क्या कोई भी उत्सव थोपा जाना चाहिए?

कितने लोग इसे मन से मनाते होंगे? उत्सव क्या बाध्यता से मनाए जाने चाहिए? ऐसा उत्सव जिसे बाध्य करके मनवाया जाता हो उसे उत्सव कहना क्या उचित होगा।

इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना राष्ट्र और उत्सव दोनों शब्दों के साथ मजाक करना है। इसे राजकीय उत्सव तो कहा जा सकता है, परंतु राष्ट्रीय उत्सव कभी नहीं। क्या मतलब है उस राष्ट्रीय उत्सव का, जिसको राष्ट्र के सभी नागरिक ही अपने मन से नहीं मनाते हों।

हम सभी को इस पर भी अवश्य विचार करना चाहिए कि आखिर वह कौन-सा कारण है कि देश के नागरिकों को इसका मतलब समझ में नहीं आता है। और अगर मतलब समझ में आता है और फिर भी स्वयं से मनाना नहीं चाहते हैं। तो ये तो और भी ज्यादा चिंता का विषय है। 



क्या इसे हम सरकार कि विफलता नहीं कहेंगे कि साठ साल बाद भी उसका राष्ट्रीय उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है। आम आदमी तो इसके पीछे के इतिहास को समझ ही नहीं सका, तो वह इसे हर्षोउल्लास से कैसे मना सकता है। 

वास्तव में आजादी मिलने के बाद अपने देश में एक नई संस्कृति और नया राष्ट्र बनाने कि कोशिश शुरू की गई थी। इसलिए इस राष्ट्र से जुड़ी सारी प्राचीन चीजों को नष्ट करके नई संस्कृति को शुरू करने का प्रयास किया गया। नए नेताओं ने व महापुरुषों ने नया इतिहास रचाने कि कोशिश की। 

अगर पुरानी अस्मिता को नष्ट करके हमारे देश की और राष्ट्र की भलाई होती तो लोग आज परेशान न होते बल्कि आज हम देखते हैं कि पुराने जीवन मूल्यों और परंपराओं कि उपेक्षा करने से समस्याए बड़ी ही हैं कम नहीं हुई। 

गणतंत्र दिवस को यदि संविधान स्थापना समारोह के रूप में मनाया जाए तो फिर भी सही है। परंतु इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना उचित नहीं है। जो उत्सव देश के आम आदमी को उत्साहित नहीं करता उसे राष्ट्रीय उत्सव कैसे कहें। 

गणतंत्र दिवस को मनाने में जनता का बहुत सारा पैसा लगता है, जो देश के विकास कार्यों के लिए बाधा बन जाता है तो क्या इसे मनाना उचित है?

            
                                                  _______________जयति गोयल




गुमान - डा. लक्ष्मी विमल (modified by kvp team in sense of restricting religious issues)

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कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |
चीखती है नारियां ,अब करती चीत्कार है ,
नन्ही - नन्ही बालिका का होता बलात्कार है,
आदमी ही बन चूका वहशी , दरिंदा,हैवान है,
कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |

मारती है माताएं बेटियों को पेट में ,
झोंकती है सासुएँ आग की लपेट में ,
जब नारियां ही नारियों पर करती अत्याचार है ,
कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |

तंग हो गए सुंदरियों के अंग के कपडे ,
देखे तो लगता है ,पहने है वो चिथड़े
यत्र नारी नाग्नते तत्र ही उत्थान है ,
कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |

नोचते है नेतागण भारत माँ की बेटियाँ,
सकते है पीढ़ी दर पीढ़ियों की रोटियां
दिल जितना काला, उतना उजला परिधान है,
कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |

संत्री पद के लिए ज़रूरी परीक्षा ,
मंत्री पद के लिए क्या सिक्षा,
संसद में होता महाभारत, ये कैसा संविधान है 
कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |

भूल गए जब महापुरुषों की कहानियाँ ,
व्यर्थ हो चुकी है सभी कुर्बानियां  
भगत सिंह जैसा अब कहाँ नोजवान है ,
कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |

कैसी ये आज़ादी ,कैसा यह देश है,
भ्रष्टाचार में डूबा सारा परिवेश है
दुष्टों के आगे यहाँ तो हरा भगवन है
कैसे हम गुमान करे देश ये महान है |

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Sunday, January 16, 2011

Mere Shyam - Ankesh मेरे श्याम  - अंकेश 

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कुछ पनघट से लाकर छोड़ा

कुछ अंखियो से पाकर जोड़ा

देख श्याम की राह में व्याकुल

गोपी का जल हुआ न थोडा

डूब गया दिन हुई है रतिया

लौट चली अब सारी सखिया

बोलो मेरे श्याम सलोने

ओर करू में कितनी बतिया

कही बावरी रात का घूघट

मुझको अपने अंक न ले ले

नटखट हुई चांदनी देखो

अपने सारे भेद न खोले



इन बिखरी आँखो का काजल

अर्धविप्त नयनो से बोले

बनी श्याम की राह में व्याकुल

इन नैनो से श्याम न खो दे

चली बावरी पवन भी देखो

मंद सौम्य सी ध्वनि सुनाती 

कही श्याम की बंसी पाकर

मुझ पर तो न रोब जमाती

उठी दिवा सी स्वेत किरण जो

इंदु छवि है मेरे उर की

आलंगन अधिकार अधूरा

आकर्षित अमृत अनुभेरी 





नयन ताकते तेरी सीमा 

निशा चली अब अपने डेरे

देख रवि कि किरण क्षितिज पर

भंवरो ने भी पंख है खोले 

बनी विरह कि बेधक ज्वाला

उषा का आह्वान कराती

अंधियारे से ढके विश्व को

अपनी लाली से नहलाती

कही श्याम कि चंचल लीला

निशा नीर सी आई हो 

सम्मुख होकर भी गोपी से 

वह तस्वीर छिपाई हो

उठी सुप्त सी कोई छाया

चली कही वो अपने डेरे

छिपी लालिमा अधर में जाके

यमुनाजल रवि किरणो से खेले

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Taruvar - Ankesh Jain तरुवर - अंकेश जैन

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एक पेड़ का पत्ता
टूटा डाली से जा बिखरा
माँ के आँचल में जा निखरा
ले चली पवन यह किस ओर
कैसा है यह शोर


सपनो का वो बादल

प्यारा सा था वो तरुवर
सूरज की किरणो ने बेधा
मेरे अन्तर्मन का शोर 
ले चली पवन यह किस ओर

उठती है सपनो की लहरें
गिरते है संशय के परदे
तूफा की धारा में बहकर
तय करने है मीलो के पहरे
ले चली पवन यह किस ओर

अंधियारे की बस्ती
मिटती नहीं मिटाये हस्ती
जीवन के अनमोल क्षणॊ को देकर
पाए है शब्दो के मोल
ले चली पवन यह किस ओर...



                                   _ अंकेश जैन


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Smriti - Ankesh Jain स्मृति - अंकेश जैन

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अधूरी सी रही जो ख्वाइश कभी 
वो आज जीने की ख्वाइश हुई
छिपे रंग बीते समय के तले
तस्वीरो को रंगी बनाने की ख्वाइश हुई

ढूँढो बीता समय वो गुजरा सा कल
कहा बिखरे वो चंचल से पल
वो तेरी हसी अधूरी पज़ल
में भूला बेरंग मौसम की ग़ज़ल

तराशे से मोती वो साथी पुराने
नुक्कड़ की मस्ती कई अफसाने
अधूरी सी ख्वाइश अधूरी सी हस्ती
हकीकत की दुनिया में सपनो की बस्ती

चले संग बहते समय के तराने
किस मोड़ मिलते यहाँ कौन जाने
ख्वाइश ही संजोये चले जा रहे है

अधूरे से सपने पले जा रहे है


___ अंकेश जैन                                 
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