Friday, October 25, 2013

Prasang - Adarsh Tiwary

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    प्रसंग
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लफ़्ज़ों में इज़हार करना चाह रहा था जिन बातों को,
उस जज़्बात के मायने मेरे लिए बड़े ख़ास थे,
इशारे काफी थे समझाने को,
पर सुनने वो लफ्ज़ तुम वही मेरे साथ थे।

धीमी धीमी बूंदों की बारिश,
बरश रही थी नन्ही बूंदे
कर रही थी श्रृंगार तेरा,
मृगनैनी पलकों के तेरे ।

चिन्हित करे सौंदर्य को ,ऐसी सकशियत तेरी,
मुख दर्शाती स्वप्नसुंदरी, रंग तेरा सुनेहरा
कमल पंखुड़ी से पवित्र तू, मन चुलबुल अति चंचल ,
हर बात में तेरी सोच सही, सलाह भाव अति गहरा ।


कैसे करू मैं पहल, बुनू शब्दों के जाल संग तेरे,
जानता हु तेरे दिल का राज़ पर  कैसे निकालू तुमसे वो बात
तेरे भी नज़रिए में अपने को तौलना बड़ा ज़रूरी था,
तुमने जो संकेत दिए, वो भाव नित नृत्य मयूरी था ।

स्वाभाविक विचार सामान, सम्मान था मेरे प्यार को
अत्यंत मतभेद के पार , मुझे मेरा नया संसार स्वीकार था ।।

 - आदर्श तिवारी
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Andhakaar aur main - Sanjay Kirar

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 अन्धकार और मैं
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मैं जब से अंधेरों में चलने लगा हूँ

उजालो से डरने लगा हूँ

जब अँधेरे ने मुझे पहली दफा छुआ

मैं डरा, सहमा

अरे ये ! क्या हुआ

मेरी आँखे चुप थी जुबा बेजुबा बन गई

रास्ते गुम थे,

मंजिल पर पहुंचना सज़ा बन गई

सन्नाटा एक दम सन्नाटा ...........

अचानक एक पल ने मुझे,

अपना मतलब सिखा  दिया

जब मुझे रूबरू अपने दिल से करा दिया

रास्ते बीहड़ो से अपने आप खुल गए

उस दिन जाना,

मेरे कुछ बिछड़े पल मुझसे कैसे जुड़ गए

और सपनो की बागडोर उन अंधेरो के हवाले कर गए।

              -संजय किरार
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Patjhad - Kusum

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 पतझड़
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जब तुम हम से मिले तो ऐसा लगा
मानो जीवन में बाहार आ गई
जैसे कलि खिल कर फूल बन गई
चारो ओर खुशियों की हरियाली थी
आकाश में छाई लाली थी

हम मदहोश थे तेरी आहोश में
न खबर थी दिन और रात की
चारो ओर प्यार ही प्यार का डेरा था

तुम क्या गए कि मानो जिंदगी वीरान हो गई
बहारो कि जगह ली पतझड़ ने
कलि फूल बन कर बिखर गई
चारो और छाया दुखो का कोहरा

कभी सोचते है कि तुम हमारे जीवन में न आते
न ही बाहार आती न ही पतझड़ लाती
फिर भी पतझड़ में सावन का दीदार करते है
हर घड़ी सिर्फ तेरा इंतज़ार करते है

_________कुसुम________

Pukaar - Kusum

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पुकार 
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सुनों देश के लाल ये माँ तुम्हे पुकारती,
जुल्मो से दबी हुई ऐ दर्द से कराहती,
कब तक सोओगे अब तो तोड़ दो इस निद्रा को,
जागो और देखो कैसे रौंद रहे है इस माँ के सीने को,
किसी ने छोड़ा धर्म, तो किसी ने संस्कार को,
कोई तोड़े देश को तो कोई माँ के प्यार को,
कोई माँ की आबरू को पैसों में है तोलता,
कोई सिंदूर पोछता तो कोई आंचल को नोचता,
कोई लूटता खसोटता कोई खून चूसता,
आबरू लुट रही तेरी माँ की देख
क्यों खून पानी हो गया क्यों आता नहीं उसमे उबाल,
क्यों गहरी नींद सोया है मेरे लाल,
क्या बात है जो तू खामोश है,
माँ की आत्मा झकझोरती और धिक्कारती
उठा ले क्रांति की मशाल ये माँ तुम्हे पुकारती
सुनो सुनो सुनो ये माँ तुम्हे पुकारती,

- कुसुम 
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Mera Raj dulara - Kusum Sharma

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मेरा राजदुलारा आँखों का तारा
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सो जा मेरे राजदुलारे, तुम हो मेरी आँखों के तारे
माना तेरे पास नहीं मै, पर तुझसे भी दूर नहीं मै
हरदम तेरे साथ रहूंगी, चारो पल में पास रहूंगी
निदिया रानी आएँगी, तुझको वो सुलायेंगी
चंदा मामा आएगा, झुला वो झुलायेगा
परियां रानी आएँगी, लोरी तुझे सुनाएंगी
मेरा राजा सो जायेंगा, निदिया में वो खो जायेंगा ।

उस समय मै तेरे सपने में आकर, तुझ पर प्यार लुटाओंगी
तेरे नन्हे हाथो को छु कर, तुझसे लड़ लड़ाऊँगी
तुझ पर प्यार लुटाऊगी, तुझ को ये समझाऊगी
माना तुम मुझको देख न पाओ, लेकिन ये एहसास कराऊगी
चलते हुए तुम गिर जाओ, तो आकर तुम्हे उठाऊँगी

टौमी तेरे साथ रहेगा, तुम सोओगे वो सोएंगा, तुम खेलोगे वो खेलेगा
तुम दोनों की मस्ती देख कर, मै भी मस्त हो जाऊँगी
सो जा मेरे राजदुलारे, कल फिर मिलने आऊँगी
परियों के साथ मिलकर, तुझको तारो की सैर करवाऊँगी
सो जा मेरे राजदुलारे तुम हो मेरी आँखों के तारे ।

- कुसुम 

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Kaate - Amulya Bharti

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काटें
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रंग - बिंरगी फूलो को देखी ।
काँटो के संग हँसती देखी ॥
ओसो से नहाती देखी ।
पत्तियों के ओंठ से सरमाती देखी ॥
रंग - बिंरगी फूलो को देखी ।
काँटो के संग हँसती देखी ॥
                                          सज - धज मुस्कुराते देखी ।
                                          भ्वरो के लिए बैठी बेकरार सी देखी ॥
                                          हवा के संग खेलती सी  देखी।
                                          अपने के लिए इंतजार सी देखी ॥
                                          रंग - बिंरगी फूलो को देखी ।
                                           काँटो के संग हँसती देखी ॥
औरो के लिए अर्पण सी देखी ।
टूटना ही जीवन सी देखी ॥
देखी कर्म ही झुक जाना ।
कलियो के स्वागत मे देखी ॥
स्वय ही मिट जाना ।
जब -जब देखी ऐसी ही देखी ॥
रंग - बिंरगी फूलो को देखी ।
काँटो के संग हँसती देखी ॥
         
   - अमूल्या भारती

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Maa - Vivekanand Joshi

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  माँ
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तू उम्मीद है
 तू हि धूप है
 तेरा ही ये जहाँ
 "तुझ से ही तो मैं हूँ माँ"
                    तुझ से ही तो मैं हूँ माँ
                    तू ही है खुशी
                    तू ही है हँसी
                    एक पल को भी रूठे मुझसे
                   वो दिन अब तू कभी ना लाना
                   तू ही है मेरी दुनिया
                  "तुझ से ही तो मैं हूँ माँ"
 तू एह्सास है
 जिसके आगे शब्दों ने भी सर झुकाया
 और मैं बस इतना ही कह पाया
 कि तेरा साया रहे सदा
 आखिर "तुझ से ही तो मैं हूँ माँ"

- विवेकानन्द जोशी

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Kanya - Puneet Jain

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कन्या - पुनीत जैन
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सुनता आया हूँ बरसों से.. की बेटिया तो घर की शान होगी,
पर किसने सोचा था की .. आते ही उनकी जिंदगी मौत के नाम होगी !

यूँ तो देवी बना पूजा करते हो मंदिरों में,
फिर क्यूँ दिखाई देती है हमें वो कचरे के ढेरो में !

राहगीरों का मनन भी पसीज उठता हैं,
जब तुम्हारे अंश क टुकड़े को कुत्ता खाता हैं !

रे निर्लज मानव..कैसे तू ये खता कर लेता है,
अपने ही अंश के टुकड़े को जुदा कर लेता है ?

बेटी से अगर इतनी ही नफरत है तो फिर क्यूँ पूजा करता हैं,
क्यूँ औलाद की उम्मीद में देवी के दर दर तू भटकता हैं !!

अरे !! बेटे तो अपने हो कर भी पराये हैं,
पर बेटियों ने तो पराई हो कर भी दो दो घर बसाए हैं !

नारी न होती तो तुम दुनियां में कैसे आते,
कैसे अपनी माँ के आँचल से यु लिपट जाते !!

विनाशकाले विपरीत बुद्धि का कथन सत्य ही समझो,
आज देवी का कातिल इंसान ख़तम ही समझो !

एक बेटी का नहीं एक माँ का भी वध करते हो,
अपने स्वार्थ की खातिर उसका दिल भी नहीं समजते हो !

ज़रा खुद को कल्पित करो उन् कंटीले नुकीले झाडो में,
पता चलेगा, कैसा दर्द होता है उन् कांटो से हुए जख्मो में !!

रे पापियों अब तो तरस खाओ, कुछ तो रहम करो,
अपने स्वार्थ की खातिर उनको यु ना ख़त्म करो.

इसलिए कहता हूँ यारो बेटी को धरती पर आने दो,
उसके पावन कदमो से इस कलयुग को स्वर्ग बन जाने दो.


- पुनीत जैन

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Dahej ek ku-riti - Puneet Jain

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 दहेज़ ...
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आज फिर मेरा कलेजा चिर गया,
दहेज़ का दानव फिर किसी की जान लील गया.

एक लड़की.. शादी कर अनजाने घर वो आती है,
बहु नहीं, एक बेटी बनने की कोशिश करती है.

फिर ऐसा क्यूँ होता है, पैसो से क्यूँ उसका मोल आँका जाता है,
दहेज़ की खातिर क्यूँ उसे प्रताड़ित किया जाता है.

क्या होता होगा जब उसके माँ-बाप को पता चलता होगा,
देख बेटी की ये दशा… कलेजा मुह को आता होगा.

क्यूँ तुम्हे बहु से नहीं, पैसो से प्यार है,
पति का भी देखो कितना कठोर व्यवहार है.

जरा सोचो.. तुमने भी तो बेटी जनी है.
वो भी तो किसी घर की बहु बननी है.

कल को उसके साथ भी ऐसा होगा,
क्या  तुमसे वो सहन होगा ,

अरे .. अब तो संभलो !! इस दहेज़ के दानव को रोको.
अपने लालच की खातिर मत किसी को आग में झोंको.

तुम्हारी बहु भी तो किसी की बहिन, किसी की बेटी है,
अब भी न संभाले तो इस दहेज़ की आग में तुम्हारी बेटी है.


- पुनीत जैन
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Bharat ka yuvak - Puneet Jain

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भारत का युवक
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युवा हूँ मैं नव भारत का, युवा हूँ में इस समाज का ,
हीरा हूँ में राष्ट्र उन्नति के इस सुनहरे ताज का .

ठान लू 'गर में कुछ भी, तो कर दिखलाता हूँ ,
नव अंकुरित पौधे से विशाल वृक्ष बन जाता हूँ .

हिला न सके मुझको कोई ऐसी बुनियाद हूँ में ,
बदलना पड़े देश को कानून ऐसी फ़रियाद हूँ में .

खेल, शिक्षा, व्यापार, समाज हर जगह परचम फेहराया हैं ,
आज मेरी ही बदोलत ऊँचे शिखरों पर भारत का ध्वज लहराया हैं .

बस सकू सबके दिलो में , ऐसा युवा बनू में इस समाज का ,
धर्म, जात-पांत में ना पडू, पाठ पदु नैतिक रिवाज़ का .

बनू श्रवण सा आज्ञावान, अर्जुन सा धीर गंभीर ,
बन पथिक हिमालय का , होउ उनती शिखर का अधीर ,

युवा हैं तू आज का.....
सत्य को हत्यार बना , आत्मसमान को सारथि,
निर्भय हो चला चल, रुकना ना ऐ भारती .
तू हैं भविष्य भारत का, तू हैं इसकी आरती

बना वही भारत, जो गाँधी का अपना था ,
जला दे वही ज्योत, जो नेहरु जी का सपना था .

उठ जाग मुसाफिर नया लम्बा सफ़र तय करना हैं,
संसार में फिर से नया जोश भरना हैं .

लौटना है तुझे हर माँ का सम्मान,
बना रहे हर वीर का बलिदान ,

हो पुरे संसार को तुझे पर नाज ,
उठ जाग युवा. पहना दे भारत को उसका ताज ।

 - पुनीत जैन

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Dharm se shikayat - Niraj Kumar "Neer"

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धर्म से शिकायत
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क्या खाने कोचखा
खाने की शिकायतकरने से पहले?
क्या परखा उसकेगुण दोषों कोया
यूँ  हींचाँद टेढ़ा करलिया ?
ये आदत हैतुम्हारी,
अबाध स्वतंत्रता से उपजी
एक बुरी आदत.
लंबी गुलामी का असरहो गया है
तुम्हारे मस्तिष्क पर.
तुम किनारे पर बैठ
समुन्दर को छिछलाबताते हो .
किनारे पर जमागन्दगी को देख
सागर की प्रकृतिबताते हो.
ये गन्दगी सागर कादोष नहीं
यह दोष हैतुम्हारा.
जो समझते हैं स्वयंको ज्ञानी
अपने सीमित ज्ञान केसाथ.
क्या पन्ने पलटे उपनिषद, गीता के कभी
कभी कोशिश की तत्वजानने की.
चार पन्ने की कोईकिताब पढ़ी और
सबको झूठा कहदिया.
तुम क्यों नहीं तलाशतेकोई और सागर,
लेकिन वहाँ आज़ादीनहीं ||

- नीरज कुमार "नीर "
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Dhanyawaad - Mamta Sharma

धन्यवाद
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पञ्च तत्वों को देहमें गढ़ कर,
उसमें देते प्राणको धर ,
लीला में हमकोरचते
धन्यवाद स्वीकार कीजिये   

माटी के तनमें अपनी,
 छवि कोदिखला- दिखला कर,
हम जैसों के मनको छलते
धन्यवाद स्वीकार कीजिये

कण कण मेंफैला ज्योति को,
अनहत - आहत मेंरमते ,
मंद - मंद उसपर हँसते
धन्यवाद स्वीकार कीजिये


ओर - छोर पता किसी को,
राह सुगम याअगम रस्ते ,
कस्तूरी बन, मनबसते 
धन्यवाद स्वीकार कीजिय

वाष्प में ढलमेघों में बदल,
हिम बन नदीझरनों में चल,
सागर वत हमकोधरते  

धन्यवाद स्वीकार कीजिये

- ममता शर्मा 
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Woh nib wale pen - Mamta Sharma

''वो निब्वाले पेन''
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अचानक मुझे यादआये हैं वोदिन जब चलतेथे निब वालेपेन !


मैं रोज हीघिसती थी स्याहीसे लिखती थी,
पेन की स्याहीके धब्बे मैंगिनती थी।

वो झगडे जोछोटी सी निबसे ही होतेथे,
वो लम्हे जब हमएक निब कोभी रोते थे।

वो दिन जबपरीक्षा में स्याहीना होती थी,
वो दिन जबहमारी लड़ाई नाहोती थी।

वो बचपन केदिन जब थींदोपहर लम्बी,
वो दिन जबसहेली की चोटी  हीलम्बी।

वो दिन जबकभी हम छीनके खाते थे,
झड बेरी केबेर या कटारेचुराते थे।

वो दिन जबसखी से जोबातें थीं होती,
कभी भी समयकम था, जोरातें भी होतीं।

हम संग हीबिताते ये पूरीही जिन्दगी,
कहाँ है वोमेरी पुरानी सीजिन्दगी।

जब कुछ हीरुपये मुझ कोलगते थे ज्यादा,
जब थोड़े में भीथा मस्ती सेगुजारा।

मुझे ला केदो ना एकबार कोई यारों,

निब वाले वोधब्बे फिर सेमुझ पे डालो।

- ममता शर्मा

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Bechari Hawa - Mamta Sharma

"बेचारी  हवा"
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हवा सुहानी चली बेचारीतो घबराये पत्ते,
होते पीले, लाल, सुनहरीज्यों ज्यों दिनहैं चढते

जैसे ही तुमआयीं रानी हवाहमें यूं लागा,
जो था जीवनबचा - खुचा वोभी झोंका लेभागा

उधर खबर सुनमलय बसंती आतीहै इस ओर
छोटे पौधे घबराए डालियों केदिल चोर .

आती होगी अभीवो  भैया, हम होंगे बसतीर ,
ये जो पुरवामस्तानी है येदेती है पीड

चिड़िया रानी भीबोली उस अल्ल्हड़मस्तानी से,
जरा ठहर तोहवा , उड़ा घरतेरी शैतानी से

चली हवा तोबने कई मुँह, वो भी कहाँसुनती है
धूल की  चुनरी सर परओढ़े हवा तोबस उडती है.

मैं लाती हूँनयी बहारें , मैंलाती हूँ कोपल,
अगर नहीं सीखाहै तुमने, ठहरोसीखो दो पल।

छोटे पौधों अब तुमबनो सुदृढ़, रहो सुकुमार ,
शाखाओं तुम झुकनासीखो ,अकड़ो हर बार .

सुनो सुनो चिड़ियामहारानी, जब सेमैं हूँ आई,
वर्षा ,जाड़े ,पाले कीमुश्किल है दूरभगाई।  

अब भी गरतुम नहीं होखुश तो, जराकरो तुम गौर,
मेरे आने सेहर सूँ रंग, हो जाता हैकुछ और।

थोड़े दिन कोआती हूँ, मौसमकरती रंगीन ,
छोड़ो अपनी -अपनी ढपली, मेरी सुन लो बीन।

- - ममता शर्मा - -

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Woh chand lafz - Dinesh Gupta

वो चंद लफ्ज़ -----------------------------------

कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा अधिकार लिखूँ मैं....................

शब्द नए चुनकर गीत वही हर बार लिखूँ मैं
उन दो आँखों में अपना सारा संसार लिखूँ मैं
विरह की वेदना लिखूँ या मिलन की झंकार लिखूँ मैं
कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ मैं……………

उसकी देह का श्रृंगार लिखूँ या अपनी हथेली का अंगार लिखूँ मैं
साँसों का थमना लिखूँ या धड़कन की रफ़्तार लिखूँ मैं
जिस्मों का मिलना लिखूँ या रूहों की पुकार लिखूँ मैं
कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ मैं…………….

उसके अधरों का चुंबन लिखूँ या अपने होठों का कंपन लिखूँ मैं
जुदाई का आलम लिखूँ या मदहोशी में तन मन लिखूँ मैं
बेताबी,  बेचैनी,  बेकरारी,  बेखुदी, बेहोशी,  ख़ामोशी……......
कैसे चंद लफ़्ज़ों में इस दिल की सारी तड़पन लिखूँ मैं

इज़हार लिखूँ, इकरार लिखूँ, एतबार लिखूँ, इनकार लिखूँ मैं
कुछ नए अर्थों में पीर पुरानी हर बार लिखूँ मैं........
इस दिल का उस दिल पर, उस दिल का किस दिल पर
कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा अधिकार लिखूँ मैं....................

                        - दिनेश गुप्ता -
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Thursday, October 24, 2013

Ek anjana dar - Pravin gola

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एक अनजाना डर
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एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
हर पल मुझे तिरस्कृत कर रहा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
क्या होगा जो तेरे पाँव के बिछ्वे को, वक़्त से पहले ही ऊँगली से जुदा होना पड़े ।

एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
कन्खिओं से मेरी ओर देख कुटिल हँसी हँसने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरी पायल की झंकार को, बजने से पीछे कोई करने लगे ।

एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
एक प्रश्नचिन्ह मेरी मुस्कुराहट पर रखने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरे हाथों की चूड़ी को ,तोड़ने पर मजबूर समाज करने लगे ।

एक अनजाना डर  मुँह बाए खड़ा …..
मेरे भोले-भाले मन पर कठोरता के व्यंग कसने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरे माथे की बिंदिया को, वक़्त से पहले कोई पोछने लगे ।

एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
मुझमें व्याभिचारिता का सबक भरने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो तेरे कामुक  लम्हों को, कोई और पूरा करने लगे ।

एक अनजाना डर मुँह बाए खड़ा …..
मेरी अंतरात्मा को पूरे जोर से झकझोरने लगा ,
सोचा है क्या तुमने कभी?
जो इस माँग में भरे लाल सिन्दूर का रंग ,मातम के खून में बदलने लगे ।

सुनकर मैं  सिहर उठी ……
अपने अनचाहे भविष्य की टीस को सूनी आँखों से पढने लगी ,
जो कहना चाहता था…… वो अनजाना डर ,
उसके हर शब्द में ,अपने लिए की हुई हर एक “फ़िक्र ” को समझने लगी ।

“नशा ” करता है पुरुष रातों में ….
तकलीफ होती है उसके परिवार को ,जब साथ छूट जाए बीच राहों में ,
वक़्त उस वक़्त बहुत ज़ालिम सा हो जाता है ,
जब एक तरफ समाज और दूसरी तरफ परिवार का भविष्य नज़र आता है ।

स्त्री उस वक़्त भँवर में ऐसे गोते लगाती है ,
जहाँ पानी तो होता है पर नाव न नज़र आती है ,
वैधव्य की चिंता उसके कोमल मन को झकझोर जाती है ,
परन्तु पछतावा ही रह जाता है ,और चिड़िया खेत चुग जाती है  ।

वही अनजाना डर मुझे यूँ सचेत करने आया था ,
कि सँभल जाओ पहले ही ……..ये सन्देश देने आया था ,
रोक लो उन्हें “नशे” से गर शक्ति है तुम्हारे सीने में ,
वरना निरर्थक ये साथ है , कोई मज़ा नहीं ऐसे जीने में ।

अचानक मैं  भाग उठी इतने जोर से …. मानो समुद्र में तूफ़ान आया हो ,
उस अनजाने डर को भगाने …..”नशे” से लड़ने की तलवार लाया हो ,
क़दमों में उनके गिर पड़ी …..विनती करने की लगाकर गुहार ,
मत करो “नशा”….मत करो “नशा “…..सिर्फ एक बार सोच कर देखो ….मेरा उजड़ा हुआ संसार ।।

- प्रवीन गोला 
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Friday, September 6, 2013

Samanta - Milap Singh Bharmouri

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समानता 
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या मै  अनपढ़ हूँ
इसलिए मुझे बात समझ नही आती
या वो बडबोला है
बस वह बोलने का ही है  आदि

वो कहता है यहाँ पर
हर आदमी समान है
मै कहता हूँ के वह
इस दुनिया से ही अनजान है

या वो अनजान है
या अनजानेपन का ढोंग करता है
या मानसिकता कलुषित है
या उसके मन में
कोई रोग पलता है

क्या वो अँधा है
रोज उसे अपने महल से निकलते
रास्ते में मेरी झुग्गी दिखाई नही देती
क्या वो बहरा है
उसे मेरे भूखे बच्चे की
रोने की आवाज सुनाई नही देती

वो अक्क्सर कहता है
कभी अखवारों में
कभी टी. वी. पे
कभी भूखों की भीड़ में
इन्ही बाजारों में
कि यहाँ पर सब इन्सान बराबर है


- मिलाप सिंह भरमौरी 

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Thursday, July 4, 2013

Antim Vriksh - Devendra Sharma

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अंतिम वृक्ष 
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सहसा बोला वह एकांत,
सौंदर्यहीन तथा क्लेश-क्लांत,
वह शक्तिहीन, वह मानहीन,
वह दुखी दुखी अति दीन-हीन,

प्रकृति सुंदरी का वह श्रृंगार,
मानव-कर्मों से दुखी अपार.
हाँ तरु कहो या उसे पेड़,
मानव जीवन की वह है मेड़,

पर आज स्वयं यह रोता है,
जब मानव जन सोता है,
यह है धरती का अंतिम वृक्ष,
है मानवता को प्रश्न यक्ष,

क्यों कट गए इसके सब साथी,
लाशों पर चलते बाराती,
पर आज मशीने आई हैं,
संहार साथ वो लायी हैं,


बन गया तथापि क्रूर दानव,
कल  तक था जो कभी श्रेष्ठ मानव..

देवेन्द्र शर्मा 
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Thursday, June 27, 2013

Mera Naya Bachpan - Subhadra Kumari Chauhan


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मेरा नया बचपन 
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बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। 

गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ 

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। 
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? 

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? 
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ 

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। 
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥ 

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। 
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥ 

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। 
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥ 

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। 
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥ 

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। 
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥ 

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। 
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥ 

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी। 
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥ 

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। 
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥ 

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं। 
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥ 

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है। 
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥ 

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना। 
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥ 

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति। 
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥ 

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप। 
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप? 

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी। 
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥ 

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी। 
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥ 

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा। 
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥ 

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'। 
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥ 

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया। 
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥ 

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ। 
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥ 

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया। 
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

~~ सुभद्रा कुमारी चौहान ~~ 

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About Poet :
She has authored a number of popular works in Hindi poetry. Her most famous composition is Jhansi Ki Rani, an emotionally charged poem describing the life of Rani Lakshmi Bai. The poem is one of the most recited and sung poems in Hindi literature. This and her other poems, Veeron Ka Kaisa Ho Basant,Rakhi Ki Chunauti, and Vida, openly talk about the freedom movement. They are said to have inspired great numbers of Indian youth to participate in the Indian Freedom Movement.
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