Friday, August 17, 2012

Bula lo in megho ko - Mamta Krishnatrey

"बुला ले इन मेघों को "
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सूर्य तूने सोख - सोख नीर बना मेघों को ,
भेजा कहाँ बता अब ,बता दे इन मेघों को

भेज उन तक एक पाती ,
अपनी धरती प्यासी
तनिक ज़ोर डांट लगा
बुला ले इन मेघों को

घनन  घनन घनन करें
सुनने को  मन तरसे
कहाँ जाय मुए बरसे
बुला ले इन मेघों को

धरा बनी बंजर है
कृषक सब ही बेघर हैं
बिके ग्राम खेतन हैं
बुला ले इन मेघों को

बाढ़ों को वहीँ छोड़
नदियाँ से मुख को मोड़
सागरों से नाता तोड़
बुला ले इन मेघों को

खेतिहर तो नष्ट हुए
जमींदार भ्रष्ट हुए
जन-जन को कष्ट हुए
बुला  लें मेघों को

पाईप लाइन सूख गई
पोर - पोर चूस गई
टेंकर पे लूट भई
बुला ले इन मेघों को

कुछ  तो तू कर मदद
तू ही तो एक अदद
क्यूंकर होगी रसद
बुला  ले इन मेघों को

बहना की शादी खड़ी
कुल की मर्याद बड़ी
विकट घडी आन पड़ी
बुला ले इन मेघों को

बच्चे खड़े आस करें
बरसो ! पुकार करें
बड़े कैसे प्यार करें
बुला ले इन मेघों को

मंदिर के ठाठ बढे
पंडित के भाग चढ़े
लूटन को माल खड़े
बुला ले इन मेघों को

गर ना तू पुकारेगा
सावन भी हारेगा
भादों तो मारेगा
बुला ले इन मेघों को

जाने ना दे मेघों को
खींच लें मेघों को
धर पकड़ इन मेघों को
बुला ले इन मेघों को

कैद कर इन मेघों को
बरसन दे मेघों को
जाने ना दे मेघों को
बुला ले इन मेघों को


- ममता कृष्णात्रेय 



1 comment:

  1. नारायण दासSeptember 18, 2012 at 4:49 AM

    बहुत खूबसूरत, काफी गति और आवेग है आपकी कविता में, व्यापकता भी अच्छी है, धन्यवाद की पात्र हैं आप|

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