Friday, March 19, 2010

Saroj Smriti - सरोज स्मृति

Saroj Smriti
                      - निराला
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण

तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;

तनये, ली कर दृक्पात तरुण

जनक से जन्म की विदा अरुण!

गीते मेरी, तज रूप-नाम

वर लिया अमर शाश्वत विराम

पूरे कर शुचितर सपर्याय

जीवन के अष्टादशाध्याय,

चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण

कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण

करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,

'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --



अशब्द अधरों का सुना भाष,

मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश

मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर

ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।

जीवित-कविते, शत-शत-जर्जर

छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर

तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --

"जब पिता करेंगे मार्ग पार

यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,

तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --



कहता तेरा प्रयाण सविनय, --

कोई न था अन्य भावोदय।

श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार

शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!



धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,

कुछ भी तेरे हित न कर सका!

जाना तो अर्थागमोपाय,

पर रहा सदा संकुचित-काय

लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर

हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।

शुचिते, पहनाकर चीनांशुक

रख न सका तुझे अत: दधिमुख।

क्षीण का न छीना कभी अन्न,

मैं लख न सका वे दृग विपन्न,

अपने आँसुओं अत: बिम्बित

देखे हैं अपने ही मुख-चित।

18 comments:

  1. one of the very honest poem

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  2. some of the lines r not there like

    le chala saath mein tujhe kanak jyun bhikshuk lekar swarn jhanak

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  3. it is a good poem but the words are difficult to be read and no rhythm can be made for this poem it is okay!!!

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  4. This is incomplete.. infact this is only one fourth of the poem

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  5. Can any1 give me a summary of this poem.I'll be very grateful as i am not able to understand it

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  6. bhai log koi is poem ki summary de do kynki ye poem ki language is vry difficult please dear sum1 give me the summary...

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  7. nice...but agar samajh aati to aur bhi aachi lagti

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  8. school me sir ne jitna samgaya tha bahot pasand aayi lekin jab poem pad rahi hu to kuch samag hi nahi aa raha hai.
    jis kisi ko bhi ye poem samagh aa gayi ho to isaka translation upload kar do ,please.

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  9. यह कहा जा सकता है कि सरोज-स्मृति शोकगीत की दुनियाँ में एक ऐसी रचना है जिसमें रचनाकार पहले वैयक्तिकता की दुनियाँ में धँसता है फिर उसे अतिक्रमित करते हुए सामाजिकता को खँगालता है और तब इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मौत तो दुखद है ही, उस से बड़ा सदमा किसी का असामयिक निधन है.

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