Thursday, June 27, 2013

Mera Naya Bachpan - Subhadra Kumari Chauhan


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मेरा नया बचपन 
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बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। 

गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ 

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। 
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? 

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? 
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ 

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। 
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥ 

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। 
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥ 

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। 
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥ 

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। 
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥ 

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। 
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥ 

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। 
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥ 

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी। 
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥ 

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। 
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥ 

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं। 
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥ 

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है। 
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥ 

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना। 
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥ 

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति। 
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥ 

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप। 
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप? 

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी। 
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥ 

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी। 
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥ 

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा। 
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥ 

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'। 
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥ 

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया। 
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥ 

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ। 
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥ 

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया। 
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

~~ सुभद्रा कुमारी चौहान ~~ 

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About Poet :
She has authored a number of popular works in Hindi poetry. Her most famous composition is Jhansi Ki Rani, an emotionally charged poem describing the life of Rani Lakshmi Bai. The poem is one of the most recited and sung poems in Hindi literature. This and her other poems, Veeron Ka Kaisa Ho Basant,Rakhi Ki Chunauti, and Vida, openly talk about the freedom movement. They are said to have inspired great numbers of Indian youth to participate in the Indian Freedom Movement.
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Videsh - Mamta Sharma

बच्चे जब काम करने विदेश चले जाते हैं उनके माँ -बाबा पर क्या गुजरती है ........इसी के ऊपर है ये मेरी कविता। कुछ समय तो अपने घर वालों की याद आती है फिर सब कुछ सामान्य।
मगर माँ - पिता वे अपना मोह नहीं त्याग पाते हैं, और माँ की दशा तो सिर्फ महसूस करने योग्य ही होती है .......
 
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विदेश 
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क्या गुजरती  उन पे है ,तुम छोड़ जाते हो जब अकेला

टीस सी उठती है मन में ,ज्यों अकेला हो ये मेला

बूढी आँखें सुख- व् -दुःख में ,गीली हो -हो सूख गईं

पुत्र  प्रेम की वो डोर जपते -जपते चूर हुई
 
 
 

कोई आता अपने मन के भाव भर वो थैलियों में

भेजते हैं दूर देश प्रेम मन का थैलियों में

अश्रु पूर्ण आँखों से चुन - चुन कर तेरी रुचियाँ

माँ भरती मुट्ठी में भेजती तुझको है खुशियाँ
 
 
 

फ़ोन  पर सुन तेरी बातें ,चाहती छिपाना भाव

शक ना हो तुझे कोई झेल जाती है वो घाव

यूँ ही लड़ झगड़ के वो काटते हैं अपनी शाम

क्यों हमने सींचे बाग़ क्यों हमने रोपे आम
 
 
 

बेटा तू छोड़ - छाड़ आ जा अब यहाँ ही

हमें क्यों बुला है रहा घर अपना यहाँ ही

पर   बेटा गया जो है आएगा कहाँ  वापिस

वह तो सुख की दुनियाँ,दुःख से हो क्या हासिल
 
 
 

अपने बच्चे अपनी बीवी ,माँ  की जगह टीवी

सुख -सुविधा धन - माया ,सब की तो यहीं वीथी
 
 
पलक पांवड़े बिछाये ,दिन बीते  रात जाएँ 
 
 
बेटा - बहू  गए  जो हैं  लौट के शायद वो आयें  ................
 
~~ ममता शर्मा ~~ 
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Sipahi - Mamta Sharma

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''सिपाही ''
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जय घोष करो , उद्घोष करो
सम्मान करो आजादी का।
संतोष करो न रोष करो ,
उठो ! संबल बनो सिपाही का।

हम मिलें - जुलें सुख में रहते,
वे धूप  ,ठण्ड ,गोली सहते,
वे विलग समाज से दुःख सहते,
चलो ! मान करो सिपाही का।

उन्हें क्या हम कुछ दे पाते है
वे राष्ट्र पे बलि - बलि जाते हैं ,
सीने पे गोली खाते हैं ,
सम्मान करो सिपाही का।

ये देश है हर एक राही का ,
क्या फर्ज सभी सिपाही का ,
चलो उस सम हम कुछ कर्म करें,
हर बच्चा बने सिपाही सा।
 
~~ ममता शर्मा ~~
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''जय हिन्द''
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Us Raat - Mamta Sharma

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उस रात
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कुछ रात हुआ भीषण निकृष्ट,सब ने पढ़ लिया पत्र में भोर।
खूब बातें झाड़ीं हर मुँह ने ,गाल बजे हुआ था शोर।
शर्मसार परिवार था रोया , दर्द से टूटा था हर पोर।
आज दिवस व् रात्रि वही हैं , घर से उनके रूठी भोर।
 
 
भूली दुनिया, रूठी खुशियाँ , उनका आज न ओर न छोर।
कहाँ गईं वे सहानुभूतियाँ , कवि ,टी वी वालों का जोर।
खा गए बीच -बिचौली वाले , रूपये लूटे ताबड़ - तोड़।
छोड़ शहर मकान बेच कर , भगे बिचारे बस्ती छोड़।
 
 
इस दुनिया में भाषण चक - मक, बातें होतीं होड़म- होड़।
कहाँ गए सुख -दुःख के साथी, दुनियां पर है छाया कोढ़।
कैसा शहर ये कैसा मेट्रो , चुरा ले गया सब जमा-जोड़।
हार गए बेचारे थक कर, याद आये गाँवों के मोड़।
 
~~ ममता शर्मा ~~ 
 
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Amrit Kalash baat do jag me - Anand Vishwas

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अमृत-कलश बाँट दो जग में
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अगर हौसला तुम में है तो,
कठिन नहीं है कोई काम।
पाँच - तत्व के शक्ति - पुंज,
तुम सृष्टी के अनुपम पैगाम।

तुम में जल है, तुम में थल है,
तुम में वायु और गगन है।
अग्नि-तत्व से ओत-प्रोत तुम,
और सुकोमल मानव मन है।

संघर्ष आज, कल फल देगा,
धरती की शक्ल बदल देगा।
तुम चाहो तो इस धरती पर,
सुबह सुनहरा कल होगा।

विकट समस्या जो भी हो,
वह उसका निश्चित हल देगा।
नीरस जीवन में भर उमंग,
जीवन जीने का बल देगा।

सागर की लहरों से ऊँचा,
लिये हौसला बढ़ जाना है।
हो कितना भी घोर अँधेरा,
दीप ज्ञान का प्रकटाना है।

उथल-पुथल हो भले सृष्टि में,
झंझावाती तेज पवन हो।
चाहे बरसे अगन गगन से,
विचलित नहीं तुम्हारा मन हो।

पतझड़ आता है आने दो,
स्वर्णिम काया तप जाने दो।
सोना तप कुन्दन बन जाता,
वासन्ती रंग छा जाने दो।

संधर्षहीन जीवन क्या जीवन,
इससे तो बेहतर मर जाना।
फौलादी ले नेक इरादे,
जग को बेहतर कर जाना।

मानव-मन सागर से गहरा,
विष, अमृत दोनों हैं घट में।
विष पी लो विषपायी बन कर,
अमृत-कलश बाँट दो जग में।

~~ आनन्द विश्वास ~~ 

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Meri Maa - Bhavana Tiwari

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 मेरी माँ
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अपने पल्लू में बाँध लीं तुमने,सारे घर की व्यथाएँ, मेरी माँ ,
चूल्हे चौके से घिरी,प्यार भरी,घर को घर सा बनाएँ, मेरी माँ ..!!

अंक में प्यार भरे ,
सोच को पंख दिए
पूजे बरगद तुलसी ,
हाथ में शंख लिए !
अपनी चोटi में गूँथ लीं तुमने,मेरे सर की बलाएँ ,मेरी माँ !!
अपने पल्लू में बाँध लीं तुमने,सारे घर की व्यथाएँ, मेरी माँ !!

तेरे वरदान फले ,
मुझको सम्मान मिले
चार धामों के सभी,
पुण्य चरणों में मिले !
मेरे जीवन में कड़ी धूप बढ़ी,अपना आशिष उढ़ाएँ,मेरी माँ !!
अपने पल्लू में बाँध लीं तुमने,सारे घर की व्यथाएँ, मेरी माँ !!

भोर की पहली किरण,
प्रार्थनाओं का चलन ,
सब दवाओं में दुआ
मंत्र पढ़ती है छुअन !
दर्द को दूर उड़ा ले के गईं ,बनके ठण्डी हवाएँ मेरी माँ !!
अपने पल्लू में बाँध लीं तुमने,सारे घर की व्यथाएँ, मेरी माँ !!


~~ भावना तिवारी ,कानपूर  ~~ 
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Us chaukhat se - Devendra Sharma

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उस चौखट से 
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उस चौखट से वो अंतिम मुलाकात थी ,
कुछ ख्वाबो का दरिया , सपनीली रात थी ,
कहना बहुत था ,सुनाने थे किस्से ,
यादों ने रखे थे अनजाने हिस्से ,
बेबस सी रोती वो चौखट दुखी थी ,
बांटी थी खुशिया जो ,शायद छिपी थी ,
जो अरमाँ संजोते थे अक्सर इकठ्ठे ,
जो नज़्मे लिखी थी यूँ लड़ते झगड़ते ,
वो रूठे मनाते , वो किस्से सुनाते ,
बारिश में मिलकर वो बूंदे चुराते ,
वो सिसकी वो आंसू जो बहते से उसपे ,
वो आंगन के पौधों से तितली उड़ाते ,
वो ममता का आँचल वो अपनों सा रिश्ता ,
वो अश्को की ज्वाला में अरमाँ झुलसते ,
कुछ छूटी हुई सी अनकही बात थी ,
हाँ उस चौखट से वो अंतिम मुलाकात थी ...
~~ देवेन्द्र शर्मा ~~ 
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Aasha aur dard - Milap Singh

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आशा और दर्द - मिलाप सिंह 
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उफनते गम के सुमुंदर में उतर जाता हूँ
मै हंसते -हंसते कहीं पे सिसक जाता हूँ
खुशियों की माला बनाने की कोशिस में
टूटे धागे के मनको सा बिखर जाता हूँ

बज्म में अपने जज्बात छुपाने की खातिर
उछलते पैमाने की तरह मैं छलक जाता हूँ
हाल ये है हिज्र-ए-मोहबत में मेरा कि
दीद के बस एक पल को मैं तरस जाता हूँ

दिल जलाती हुई अँधेरी रातों में 'अक्स'
गरीब के आंसूं की तरह मै बरस जाता हूँ
शव को देखता है कोई हसरत से मगर
सुबह नशे की तरह मै उतर जाता हूँ

दर्द, गम और तन्हाई ही दिखे मुझको बस
उठा के कदम खुदा मै जिधर भी जाता हूँ
उफनते गम के सुमुंदर में उतर जाता हूँ
मै हंसते -हंसते कहीं पे सिसक जाता हूँ
 
~~ मिलाप सिंह ~~ 
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