Sunday, June 20, 2010

तुझे कुछ और भी दूँ - रामावतार त्यागी Tujhe kuch aur bhi du - Ramavtar Tyagi


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मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ
देश तुझको देखकर यह बोध पाया
और मेरे बोध की कोई वजह है
स्वर्ग केवल देवताओं का नहीं है
दानवों की भी यहाँ अपनी जगह है
स्वप्न अर्पित प्रश्न अर्पित आयु का क्षण क्षण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ
रंग इतने रूप इतने यह विविधता
यह असंभव एक या दो तूलियों से
लग रहा है देश ने तुझको पुकारा
मन बरौनी और बीसों उँगलियों से
मान अर्पित गान अर्पित रक्त का कण कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ
सुत कितने पैदा किए जो तृण भी नहीं थे
और वे भी जो पहाड़ों से बड़े थे
किंतु तेरे मान का जब वक्त आया
पर्वतों के साथ तिनके भी लड़े थे
ये सुमन लो, ये चमन लो, नीड़ का तृण तृण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ

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झंडा ऊँचा रहे हमारा - श्यामलाल गुप्त पार्षद Jhanda Uncha Rahe Hamara - Shyamlal Gupt Parshad

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विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला,
प्रेम सुधा सरसाने वाला
वीरों को हरषाने वाला
मातृभूमि का तन-मन सारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

स्वतंत्रता के भीषण रण में,
लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में,
काँपे शत्रु देखकर मन में,
मिट जावे भय संकट सारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

इस झंडे के नीचे निर्भय,
हो स्वराज जनता का निश्चय,
बोलो भारत माता की जय,
स्वतंत्रता ही ध्येय हमारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

आओ प्यारे वीरों आओ,
देश-जाति पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ,
प्यारा भारत देश हमारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
इसकी शान न जाने पावे,
चाहे जान भले ही जावे,
विश्व-विजय करके दिखलावे,
तब होवे प्रण-पूर्ण हमारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।
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जहाँ डाल-डाल पर - राजेंद्र किशन Jahan Dal Dal Par - Rajendra Kishan

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जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा||
जहाँ सत्य, अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा||
ये धरती वो जहाँ ऋषि मुनि जपते प्रभु नाम की माला
जहाँ हर बालक एक मोहन है और राधा हर एक बाला
जहाँ सूरज सबसे पहले आ कर डाले अपना फेरा
वो भारत देश है मेरा||
अलबेलों की इस धरती के त्योहार भी हैं अलबेले
कहीं दीवाली की जगमग है कहीं हैं होली के मेले
जहाँ राग रंग और हँसी खुशी का चारों ओर है घेरा
वो भारत देश है मेरा||
जब आसमान से बातें करते मंदिर और शिवाले
जहाँ किसी नगर में किसी द्वार पर कोई न ताला डाले
प्रेम की बंसी जहाँ बजाता है ये शाम सवेरा
वो भारत देश है मेरा||
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जय जयति भारत भारती - नरेंद्र शर्मा Jai Jayati Bharat Bharati - Narendra Sharma


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जय जयति भारत भारती!
अकलंक श्वेत सरोज पर वह
ज्योति देह विराजती!

नभ नील वीणा स्वारमयी
रविचंद्र दो ज्योतिर्कलश
है गूँज गंगा ज्ञान की
अनुगूँज में शाश्वत सुयश
हर बार हर झंकार में
आलोक नृत्य निखारती
जय जयति भारत भारती!
हो देश की भू उर्वरा
हर शब्द ज्योतिर्कण बने
वरदान दो माँ भारती
जो अग्नि भी चंदन बने
शत नयन दीपक बाल
भारत भूमि करती आरती
जय जयति भारत भारती!
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चल मरदाने - हरिवंश राय बच्चन  Chal Mardane - Harivansha Rai Bacchan

चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पाँव बढ़ाते,
मन मुसकाते, गाते गीत।
एक हमारा देश, हमारा
वेश, हमारी कौम, हमारी
मंज़िल, हम किससे भयभीत।
चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पाँव बढ़ाते,
मन मुसकाते, गाते गीत।
हम भारत की अमर जवानी,
सागर की लहरें लासानी,
गंग-जमुन के निर्मल पानी,
हिमगिरि की ऊँची पेशानी,
सब के प्रेरक, रक्षक, मीत।
चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पाँव बढ़ाते,
मन मुसकाते, गाते गीत।
जग के पथ पर जो न रुकेगा,
जो न झुकेगा, जो न मुड़ेगा,
उसका जीवन उसकी जीत।
चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पाँव बढ़ाते,
मन मुसकाते, गाते गीत।

ऐ मेरे वतन के लोगों- प्रदीप Ae Mere Watan Ke Logon - Pradeep

ऐ मेरे वतन के लोगों तुम खूब लगा लो नारा
ये शुभ दिन है हम सब का लहरा लो तिरंगा प्यारा

पर मत भूलो सीमा पर वीरों ने है प्राण गँवाए
कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट के घर ना आए
ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुरबानी

जब घायल हुआ हिमालय ख़तरे में पड़ी आज़ादी
जब तक थी साँस लड़े वो फिर अपनी लाश बिछा दी
संगीन पे धर कर माथा सो गए अमर बलिदानी
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुरबानी

जब देश में थी दीवाली वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में वो झेल रहे थे गोली
क्या लोग थे वो दीवाने क्या लोग थे वो अभिमानी
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुरबानी

कोई सिख कोई जाट मराठा कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पर मरनेवाला हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत पर वो खून था हिंदुस्तानी
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुरबानी

थी खून से लथ-पथ काया फिर भी बंदूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा फिर गिर गए होश गँवा के
जब अंत-समय आया तो कह गए के अब मरते हैं
खुश रहना देश के प्यारों अब हम तो सफ़र करते हैं

थे धन्य जवान वो अपने
थी धन्य वो उनकी जवानी
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुरबानी
जय हिंद जय हिंद की सेना
जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद 

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ऐ मेरे प्यारे वतन - प्रेम धवन Ae Mere Pyare Watan - Prem Dhawan

ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन
तुझ पे दिल कुरबान
तू ही मेरी आरजू़, तू ही मेरी आबरू
तू ही मेरी जान
तेरे दामन से जो आए
उन हवाओं को सलाम
चूम लूँ मैं उस जुबाँ को
जिसपे आए तेरा नाम
सबसे प्यारी सुबह तेरी
सबसे रंगी तेरी शाम
तुझ पे दिल कुरबान
माँ का दिल बनके कभी
सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्हीं-सी बेटी
बन के याद आता है तू
जितना याद आता है मुझको
उतना तड़पाता है तू
तुझ पे दिल कुरबान
छोड़ कर तेरी ज़मीं को
दूर आ पहुँचे हैं हम
फिर भी है ये ही तमन्ना
तेरे ज़र्रों की कसम
हम जहाँ पैदा हुए उस
जगह पे ही निकले दम
तुझ पे दिल कुरबान
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ऐ मातृभूमि!  - रामप्रसाद बिस्मिल  Ae Matribhumi - Ram Prasad Bismil


ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कांतिमय हो
अज्ञान की निशा में, दुख
से भरी दिशा में
संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो

तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो
तेरी प्रसन्नता ही आनंद का विषय हो

वह भक्ति दे कि 'बिस्मिल' सुख में तुझे न भूले
वह शक्ति दे कि दुख में कायर न यह हृदय हो

उठो धरा के अमर सपूतो - द्वारिका प्रसाद महेश्वरी  Utho Dhara Ke Amar Saputo - Dwarika Prasad Maheshwari

उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
नव स्फूर्ति, नव प्राण भरो।

नई प्रात है नई बात है
नया किरन है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगें
नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में
नई-नई मुस्कान भरो।

उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।1।।

डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं।
गुन-गुन, गुन-गुन करते भौंरें
मस्त उधर मँडराते हैं।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नव गान भरो।

उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।2।।

कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है।
नूतन मंगलमय ध्वनियों से
गुँजित जग-उद्यान करो।

उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।3।।

सरस्वती का पावन मंदिर
शुभ संपत्ति तुम्हारी है।
तुममें से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो।

उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।4।।

उठो सोने वालों - वंशी धर सुकला  Utho Sone Walon - Vanshidhar Shukla

उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।
वतन के फ़क़ीरों का फेरा हुआ है।।
उठो अब निराशा निशा खो रही है
सुनहली-सी पूरब दिशा हो रही है
उषा की किरण जगमगी हो रही है
विहंगों की ध्वनि नींद तम धो रही है
तुम्हें किसलिए मोह घेरा हुआ है
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।।
उठो बूढ़ों बच्चों वतन दान माँगो
जवानों नई ज़िंदगी ज्ञान माँगो
पड़े किसलिए देश उत्थान माँगो
शहीदों से भारत का अभिमान माँगो
घरों में दिलों में उजाला हुआ है।
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।
उठो देवियों वक्त खोने न दो तुम
जगे तो उन्हें फिर से सोने न दो तुम
कोई फूट के बीज बोने न दो तुम
कहीं देश अपमान होने न दो तुम
घडी शुभ महूरत का फेरा हुआ है।
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।
हवा क्रांति की आ रही ले उजाली
बदल जाने वाली है शासन प्रणाली
जगो देख लो मस्त फूलों की डाली
सितारे भगे आ रहा अंशुमाली
दरख़्तों पे चिड़ियों का फेरा हुआ है।
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।

                 आज़ादी का गीत- हरिवंश राय बच्चन                      Aazadi Ka Geet - Harivansha Rai Bacchan.


हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल।
चाँदी सोने हीरे मोती से सजती गुड़ियाँ।
इनसे आतंकित करने की बीत गई घड़ियाँ
इनसे सज धज बैठा करते जो हैं कठपुतले
हमने तोड़ अभी फेंकी हैं बेड़ी हथकड़ियाँ
परंपरा गत पुरखों की हमने जाग्रत की फिर से
उठा शीश पर रक्खा हमने हिम किरीट उज्जवल
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल।
चाँदी सोने हीरे मोती से सजवा छाते
जो अपने सिर धरवाते थे वे अब शरमाते
फूलकली बरसाने वाली टूट गई दुनिया
वज्रों के वाहन अंबर में निर्भय घहराते
इंद्रायुध भी एक बार जो हिम्मत से ओटे
छत्र हमारा निर्मित करते साठ कोटि करतल
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल।

आज तिरंगा फहराता है - सजीवन मयंक  Aaj Tiranga Fahrata Hai - Sajeevan Mayank


आज तिरंगा फहराता है अपनी पूरी शान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।
आज़ादी के लिए हमारी लंबी चली लड़ाई थी।
लाखों लोगों ने प्राणों से कीमत बड़ी चुकाई थी।।
व्यापारी बनकर आए और छल से हम पर राज किया।
हमको आपस में लड़वाने की नीति अपनाई थी।।
हमने अपना गौरव पाया, अपने स्वाभिमान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।
गांधी, तिलक, सुभाष, जवाहर का प्यारा यह देश है।
जियो और जीने दो का सबको देता संदेश है।।
प्रहरी बनकर खड़ा हिमालय जिसके उत्तर द्वार पर।
हिंद महासागर दक्षिण में इसके लिए विशेष है।।
लगी गूँजने दसों दिशाएँ वीरों के यशगान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।
हमें हमारी मातृभूमि से इतना मिला दुलार है।
उसके आँचल की छैयाँ से छोटा ये संसार है।।
हम न कभी हिंसा के आगे अपना शीश झुकाएँगे।
सच पूछो तो पूरा विश्व हमारा ही परिवार है।।
विश्वशांति की चली हवाएँ अपने हिंदुस्तान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।

सजीवन मयंक

आग बहुत सी बाकि है - अनिभव शुक्ल Aag Bahot Si Baaki Hai - Anibhav Shukla

भारत क्यों तेरी साँसों के, स्वर आहत से लगते हैं,
अभी जियाले परवानों में, आग बहुत-सी बाकी है।
क्यों तेरी आँखों में पानी, आकर ठहरा-ठहरा है,
जब तेरी नदियों की लहरें, डोल-डोल मदमाती हैं।
जो गुज़रा है वह तो कल था, अब तो आज की बातें हैं,
और लड़े जो बेटे तेरे, राज काज की बातें हैं,
चक्रवात पर, भूकंपों पर, कभी किसी का ज़ोर नहीं,
और चली सीमा पर गोली, सभ्य समाज की बातें हैं।
कल फिर तू क्यों, पेट बाँधकर सोया था, मैं सुनता हूँ,
जब तेरे खेतों की बाली, लहर-लहर इतराती है।
अगर बात करनी है उनको, काश्मीर पर करने दो,
अजय अहूजा, अधिकारी, नय्यर, जब्बर को मरने दो,
वो समझौता ए लाहौरी, याद नहीं कर पाएँगे,
भूल कारगिल की गद्दारी, नई मित्रता गढ़ने दो,
ऐसी अटल अवस्था में भी, कल क्यों पल-पल टलता है,
जब मीठी परवेज़ी गोली, गीत सुना बहलाती है।
चलो ये माना थोड़ा गम है, पर किसको न होता है,
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है,
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।
क्यों तू जीवन जटिल चक्र की, इस उलझन में फँसता है,
जब तेरी गोदी में बिजली कौंध-कौंध मुस्काती है।
- अभिनव शुक्ला

15 august 1947 - Sumitra Nandan Pant


15 अगस्त 1947 - सुमित्रानंदन पन्त  15 august 1947 Sumitra Nandan Pant


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चिर प्रणम्य यह पुण्य अह्न जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!
नवभारत, फिर चीर युगों का तिमिर आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन!
शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण!
आम्र मौर जाओ हे, कदली स्तंभ बनाओ,
पावन गंगा जल भर मंगल-कलश सजाओ!
नव अशोक पल्लव के बंदनवार बँधाओ,
जय भारत गाओ, स्वतंत्र जय भारत गाओ!
उन्नत लगता चंद्रकला-स्मित आज हिमाचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शंभु तपोज्ज्वल!
लहर-लहर पर इंद्रधनुष-ध्वज फहरा चंचल
जय-निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल!
धन्य आज का मुक्ति-दिवस, गाओ जन-मंगल,
भारत-लक्ष्मी से शोभित फिर भारत-शतदल!
तुमुल जयध्वनि करो, महात्मा गांधी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय!
राष्ट्रनायकों का हे पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन!
स्वर्ण शस्य बाँधों भू-वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवकगण!
लोह संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित संपन्न क्षुधातुर नग्न भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म-वचन-मन-प्राण-समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!
नव स्वतंत्र भारत हो जगहित ज्योति-जागरण,
नवप्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण!
नव-जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव-मन में!
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न-समापन,
शांति-प्रीति-सुख का भू स्वर्ण उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जन-जीवन की!
धन्य आज का स्वर्ण-दिवस, नव लोक जागरण,
नव संस्कृति आलोक करे जन भारत वितरण!
नव जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन!

 - सुमित्रानंदन पंत
15 अगस्त 2007

15 August 1947 - Girija Kumar Mathur

१५ अगस्त १९४७ - गिरिजा कुमार माथुर 
15 August 1947 - Girija Kumar Mathur


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आज जीत की रात
पहरुए! सावधान रहना
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना
प्रथम चरण है नये स्वर्ग का
है मंज़िल का छोर
इस जन-मंथन से उठ आई
पहली रत्न-हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन-मुक्ता-डोर
क्यों कि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर
ले युग की पतवार
बने अंबुधि समान रहना।
विषम शृंखलाएँ टूटी हैं
खुली समस्त दिशाएँ
आज प्रभंजन बनकर चलतीं
युग-बंदिनी हवाएँ
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गयीं
यह सिमटी सीमाएँ
आज पुराने सिंहासन की
टूट रही प्रतिमाएँ
उठता है तूफान, इंदु! तुम
दीप्तिमान रहना।
ऊंची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी
छायाओं का डर है
शोषण से है मृत समाज
कमज़ोर हमारा घर है
किन्तु आ रहा नई ज़िन्दगी
यह विश्वास अमर है
जन-गंगा में ज्वार,
लहर तुम प्रवहमान रहना
पहरुए! सावधान रहना।।

Saturday, June 19, 2010

Saket - Maithli Sharan Gupt साकेत - मैथली शरण गुप्त

         (नवं सर्ग में  से) ;
दो वंशो में प्रकट करके पावनी लोक - लीला ,
सौ पुत्रो से अधिक जिनकी पुत्रिया पूत्शीला ,
त्यागी भी है शरण जिनके , जो अनाशक्त गेही ,
राजा - योगी जय जनक वे पुन्यदेही , विदेही |
               
  विफल जीवन व्यर्थ बहा , बहा ,
शरद दो पद भी न हुए हाहा! 
  कठिन है कविते, तुम भूमि ही ,
  पर यहाँ श्रम भी सुख सा रहा |

करुणे , क्यों रोती है ? 'उत्तर ' में और अधिक तू रोई ,
'मेरी विभूति है जो, उसके भव - भूति क्यों कहे कोई' !

अक्साध को अपनाकर त्याग से,
              वन तपोवन सा प्रभु ने किया |
भरत ने उनके अनुराग से, 
                 भवन में वन का व्रत ले लिया  |


स्वामी सहित सीता ने
नंदन मन सघन - गहन कानन भी, 
वन उर्मिला वधु ने 
किया उन्ही के हितार्थ निज उपवन भी !


अपने अतुलित कुल में 
प्रकट हुआ था  कलंक जो कला ,
वह उस कुल - बाला में
अश्रु - सलिल से समस्त धो डाला|


भूल अवधी - सुध प्रिय से ,
कही जगती हुई कभी - 'आओ! '
किन्तु कभी सोती तो
उठती वह चौंक बोलकर - 'जाओ! '


मानस मंदिर में सटी , पति की प्रतिमा थाप ,  
जलती - सी उस विरह में , बनी आरती आप! 


आँखों में प्रिय - मूर्ति थी , भूले थे सब भोग;
हुआ योग से भी अधिक उसका विषम वियोग !


आठ पहर चौंसठ घड़ी स्वामी का ही धयान,
छूट गया पीछे स्वयं उससे आत्मज्ञान !

उस रुदंती विरहणी के रूदन - रस के लेप से' 
और पाकर ताप उसके प्रिय - विरह विक्षेप से ,
वर्ण - वर्ण सदैव जिनके हो विभुसन कर्ण के ,
क्यूँ न बनते कवी जानो के ताम्रपत्र सुवर्ण के ?

पहले आँखों में थे मानस में कूद मग्नाप्रिया आब थे ,
छीटें वहीँ उड़े थे, बड़े बड़े अश्रु वे आब थे? 

उसे बहुत थी विरह के एक दंड की चोट,
धन्य सखी देती रही निज यत्नों की ओंट|

मिलाप था दूर अभी धनी का,
विलाप ही था बस का बनी का |

अपूर्व आलाप वाही हमारा ,
यथा विपंची - दिर दार दारा|

सींचे ही बस मालिनें, कलश लें,कोई न ले कर्त्तरी ,
शाखी फूल फले यथेच्छ बढ़के ,फैले लताएं हरी| 
क्रीडा कानन शैल यन्त्र-जल से संसिक्त होता रहे,
मेरे जीवन का,चलो सखी,वही सोता भिगोता बहे! 

क्या क्या होगा साथ,में क्या बताऊँ! 
है ही क्या,हाँ! आज में जताऊं?
तो भी तुली पुस्तिका और वीणा,
चथ्वी में हूँ,पांचवी तू प्रवीणा!

हुआ एक दुःख स्वप्ना सा,कैसा उत्पात,
जागने पर भी वह बना वैसा ही दिन रात!

खान पान तो ठीक है पर तदन्तर हाय!
आवश्यक विश्राम जो उसका कौन उपाय?

आरी व्यर्थ है व्यंजनों की बड़ाई ,
हटा थल,तू तू क्यूँ इसे आप लायी?
वही पाक है,जो बिना भूख भावे,
बता किन्तु तू ही,उसे कौन खावे? 

हे तात ,तालसंपूतक तनिक ले लेना ,
बहनों ,को वन उपहार मुझे है देना| 
"जो आज्ञा,"- लक्ष्मण गए तुरंत कुटी में,
ज्यों घुसे सूर्य-कर-निकर सरोज - पुटी में|
जाकर परन्तु जो उन्होंने देखा,
तो दिख पड़ी कोणस्थ वहां उर्मिला - रेखा| 
यह काया है या शेष उसीकी छाया, 
छन भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया|
मेरे उपवन के हरिन , आज वनचारी,
में बाँध न लुंगी तुम्हे,तजो भय भरी|
गिर पड़े दौड़ सौमित्री प्रिय पद तरा में ,
वह भींग उठी प्रिय चरण धरे दृग-जल में|

Friday, June 18, 2010

Bharat Bharti : (Arya Khand)-Maithli Sharan Gupt



Bharat Durdasha - Bhartendu Harishchandra

भारत दुर्दशा - भारतेंदु हरिश्चंद्र

रोवहु
सब मिलि के आवहु भारत भाई |
हा!हा! भारत दुर्दशा देखी जाई ||
सबके पाहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो |
सबके पाहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो ||
सबके पाहिले जो रूप रंग रस भीनो|
सबके पाहिले विद्याफल जिन गहि लीनो ||
अब सबके पीछे सोई परत लखाई |
हा! हा! भारत दुर्दशा देखी जाई ||
जहं भए शाक्य हरिचंद नह्षु ययाती|
जहं राम युद्धिष्ठिर वासुदेव सर्यती ||
जहं भीम करण की छटा दिखाती |
तहं रही मूढ़ता कलह अविद्या राती ||
अब जहं देखहु तहं दुख ही दुःख दिखाई |
हा! हा! भारत दुर्दशा देखी जाई ||
लरी वैदिक जैन दुबाई पुस्तक सारी |
करी कलह बुलाई जवन सैन पुनि भारी ||
तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु वारी |
छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी ||
भए अंध पंगु सब दीन हीन बिलखाई |
हा! हा! भारत दुर्दशा देखी जाई ||
अंग्रेज़ राज सुख साज सजे सब भारी |
पै धन बिदेस चली जात इहै अति ख्वारी |
ताहू पै महँगी काल रोग विस्तारी |
दिन-दिन दुनो दुःख ईस देत हा हारी ||
सबके ऊपर टिक्क्स की आफत आई |
हा! हा! भारत दुर्दशा देखी जाई ||